निवेदन।


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सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

227.....हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी

सादर अभिवादन
आज उनतीस फरवरी है...
और फिर आएगी 
ये उनतीस फरवरी 
सन 2020 में
एक यादगार दिन..
हर्षित हैं वे..
जिनका कि आज..
जन्म दिन है..
या वे..
जिनकी सालगिरह है
हार्दिक बधाइयाँ उन सभी को...

चलिए चलें...

अपनी मंजिल और आपकी तलाश में...प्रभात
मैला हुआ वो पानी दरिया का, सूरज भी जैसे रुका हुआ है
जाड़ा, गर्मी बरसात लिए अब मौसम कितना बदला हुआ है

घास पर फ़ैली ओंस की बूंदों में चिमनी का रंग घुला हुआ है
वर्षों हो गये सुने कोयल की कूकू को कैसे कहाँ छिपा हुआ है

उलूक टाईम्स में... सुशील भाई
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।

सुधिनामा में... साधना वैद
देश में कहीं कुछ हो जाये हमारे मुस्तैद उपद्रवकारी
हमेशा बड़े जोश खरोश के साथ हिंसा फैलाने में,
तोड़ फोड़ करने में और जन सम्पत्ति को नुक्सान पहुँचाने में
सबसे आगे नज़र आते हैं। अब तो इन लोगों ने अपना दायरा और भी बढ़ा लिया है ।
वियना में कोई दुर्घटना घटे या ऑस्ट्रेलिया में, 
अमेरिका में कोई हादसा हो या इंग्लैंड में, 
हमारे ये ‘जाँबाज़’ अपने देश की रेलगाड़ियाँ या बसें जलाने में 
ज़रा सी भी देर नहीं लगाते ।



जिंदगी की राहें में...मुकेश कुमार सिन्हा
पन्ने उलटते हैं
कवि की कलम होने लगती है वाचाल
स्त्रियों के जिस्म, उतार चढ़ाव
सेक्स, सेंसेक्स, इंडेक्स
कर देता है मिक्सिंग सब कुछ
एक ही रचना में वो चूमता है
और फिर जिस्म से उतरता हुआ
पहुँच जाता है राजनितिक पार्लियामेंट !!

और ये रही आज की शीर्षक रचना का अंश
अब छोड़ो भी में...अलकनन्दा सिंह
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त द्वारा रचित
ये कविता आज बेहद प्रासंगिक हो गई है
क्योंकि संसद, जेएनयू और महिषासुर दिवस से लेकर
जो चर्चा मां दुर्गा के लिए आपत्त‍िजनक शब्दों तक पहुंच गई है,

आज्ञा दें यशोदा को
मन की बात आकाशवाणी पर प्रसारित किया जाने वाला एक कार्यक्रम है जिसके जरिये भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत के नागरिकों को संबोधित करते हैं।
अगर आप यह कार्यक्रम अपने mobile पर सुनना चाहे तो आप 8190881908 पर missed call देकर सुन सकते हैं।








रविवार, 28 फ़रवरी 2016

226- आखर परखै मुरधरा, आडंबर मेवाड़।

सुप्रभात दोस्तो
प्रस्तुत है आज की आनंद की पांच लिंक

           उच्चारण पर........ रूपचन्द्र शास्त्री जी
महावृक्ष है यह सेमल का,
खिली हुई है डाली-डाली।
हरे-हरे फूलों के मुँह पर,
छाई है बसन्त की लाली।।
पाई है कुन्दन कुसुमों ने
कुमुद-कमलिनी जैसी काया।
सबसे पहले सेमल ने ही 
धरती पर ऋतुराज सजाया।।

राजस्थान में मेवाड़ रा सीसोदिया राजवंस कुळ गौरव अर उण रै सुतंतरता री रक्षा रै खातर घणौ ऊंचौ, आदरजोग अर पूजनीक मानीजै। राजस्थान रा बीजा रजवाड़ां में मेवाड़ वाळा सदा अपणी मान मरोड़, कुरब कायदा कांनी ऊभा पगां रैवता आया है। इण सूं उण नै धन, मिनख री हाण अर घणी अबखाई रा कामां सू भटभेड़ियां भी लेवणी पड़ी। मेवाड़ रौ आडंबर तौ आखा बाईसा रजवाड़ां में नामी इज हौ। 
पख हाड़ौती माळवौ, ढब देखै ढूंढाड़। 
आखर परखै मुरधरा, आडंबर मेवाड़।।
अंकाक्षा पर......आशा  सक्सेना
अपशब्दों का प्रहार
इतना गहरा होता 
घाव प्रगाढ़ कर जाता 
घावों से रिसाव जब होता 
अपशब्द कर्णभेदी हो जाते
मन मस्तिष्क पर
बादल से मडराते
छम छम जब बरसते
नदी नाले उफान पर आते 


शेष फिर पर.....डाॅ अजीत
कभी कभी खीझकर
पिताजी मुझे कहते थे
सियासती
खासकर जब मैं तटस्थ हो जाता
या फिर उनका पक्ष नही लेता था
उनके एकाधिकार को चुनौति देने वाली व्यूह रचना का
वो मुझे मानते थे सूत्रधार
उन्हें लगता मैं अपने भाईयों को संगठित कर
उनके विरोध की नीति का केंद्र हूँ
गर्मा गरम बातचीत में उन्हें लगता
मिलकर उनको घेर रहा हूँ
उनको जीवन और निर्णयों को अप्रासंगिक बताने के लिए

समालोचन पर .........अरूण जी
मैं इस मचान पर खड़ा हूं       
चीरें फाड़ें तो लकड़ी का फट्टा ठस्स
नट इतराए तो सीढ़ी
मैं बेलाग हो चाहता हूं नीचे उतरना
ज़मीन पर खड़े होकर बात करना 


शुरू करते ही
कला की संवेदन की
ऐंठन होने लगती है
बाराखड़ी साधते ही
मजमे की चौहद्दी तय हो जाती है
बांस पर चढ़कर बाजीगर
सूद के साथ मूल का
मिर्च मसाला पीसता है
संयम में घोलकर
चिंतन के खरल में
कपड़छान कर मूल को
देखने सूंघने के फटीचर आयुर्विज्ञान में
अचानक वह सीढ़ी सी
निराकार से उद्भूत होती है
चीरें फाड़ें तो लकड़ी का फट्टा ठस्‍स
नट इतराए तो सीढ़ी
बस सीढ़ी ही दिखती है

अब दीजिए अपने दोस्त विरम सिंह सुरावा को 
आज्ञा 
धन्यवाद

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

225 ..... चन्द्रशेखर आजाद शहीद दिवस ---. "27 फरवरी 1931..





 चन्द्रशेखर आज़ाद जी की शहादत को कृतज्ञ राष्ट्र नमन करता है..



पिता उड़ने की कीमत जानता है
वक़्त के साथ 
काट दिए जाते है पंख
जूझना पड़ता है 
समाज की बेडियो में




सपनों की सच्चाई देखी
देखा टूटें अरमानों को
प्रतिभा के माथे चढ़ चढ़ कर
मन का मढ़ना छोड़ दिया है 
हाँ! मैंने कविता पढ़ना छोड़ दिया है





तो क्या सब याद रखते हो सब
घुटते रहते हो उन सब के लिए
क्या वापस ला सकते हो वो सब
पलट सकते हो घड़ी की सूइयां 





कदम तुम्हारे बडे सितमगर, 
मुझे देख मुड जाते हैं
धूल मगर उन कदमों की राहों में 
फूल खिलाती है






इस बच्चे के बारे में कहा जाए तो यह बच्चा एकदम से, कुपाषित थी. उसकी उम्र तो करीबन 3 साल की है. लेकिन दिखने के लिए जैसे की, 6-महीने का बच्चा हो. उसका वजन किया तो वह सात किलो और तीनसो ग्राम निकला. जब की तीन साल के बच्चे का वजन 15-20 के करीब होना चाहिए. उस बच्चे को जब मैंने गोद में उठाया था तो उसके केवल हड्डिया मुझे छूह रही थी. तो पता चल रहा था की इस बच्चे की हालात कितनी क्रिटिकल थी.





वर्ग के संवैधानिक हक और समान हिस्सेदारी के समर्थन में
 कोई भी मांग या आन्दोलन देशद्रोह क्यों है?
 राष्ट्रहित के विरुद्ध क्यों है? 
इस सवाल का उत्तर जान लेने के बात स्वत: ही
 इस सवाल का जवाब मिल जायेगा कि
 'आखिर देश है क्या?'






इधर हवाई जहाज के मालिकों ने यात्री के साथ अतिरिक्त वजन की सीमा को भी पहले से लगभग आधा कर दिया है और बिना किसी प्रतिक्रिया के यह बात यात्रियों ने स्वीकार भी कर लिया । नयी सीमा के अतिरिक्त वज़न पर अलग से शुल्क देना होगा । हालांकि यह पहले भी देना पड़ता था लेकिन तब वज़न की सीमा ज्यादा थी । कंपनियाँ जानती हैं कि हवाई जहाज में चलने वाले ज़्यादातर लोग हील-हुज़्ज़त से बचने वाले लोग हैं जिनके लिए हर चीज़ का साधारण सा इलाज़ है धन ।


फिर मिलेंगे .... तब तक के लिए 
आखरी सलाम


विभा रानी श्रीवास्तव



शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

224....कुछ ख़ार कम तो कर गये गुज़रे जिधर से हम.

जय मां हाटेशवरी...

भडका रहे हैं आग लब-ए-नग़्मगर से हम
ख़ामोश क्यों रहेंगे ज़माने के डर से हम
ले दे के अपने पास फ़क़त इक नज़र तो है
क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम
देगा किसी मक़ाम पे ख़ुद राहज़न का साथ
ऐसे भी बदगुमान न थे राहबर से हम
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके
कुछ ख़ार कम तो कर गये गुज़रे जिधर से हम.
साहिर जी की इस प्यारी सी गजल के बाद....
पेश है आज के लिये...
मेरी पसंद...


कहानी - शम्भू रैदास--BRIJESH NEERAJ
क्या कहें? अचानक उन्हें लगा कि उस विशालकाय लम्बे व्यक्ति के सामने वह बिल्कुल बौने हो गए हैं। यदि शम्भू चाहता तो इस झोले की सामग्री से वह अपने घर की दीवाली
जगमग कर सकता था। आखिर उसके घर में भी तो अँधेरा था। उस अँधेरे को दूर करने की खातिर ही वह सबेरे मिन्नतें करने आया था। परन्तु, उस समय उनका दिल जरा भी नहीं
पसीजा था। इधर शम्भू को देखो, उसने इस घर की कितनी परवाह की। वह हमारे आने के बाद झोले की तलाश में भटका होगा। आखिर,  उसने इस घर का नमक खाया है। उसके पुरखे
यहाँ की ड्योढ़ी पर पले थे। शायद, उसने अपना वही हक अदा किया है। मगर नहीं, संभवतः यह सम्पूर्ण सच नहीं है। सच तो यह है कि शम्भू के खून में ईमानदारी है, मानवता
है,  चरित्र है और वह सब कुछ है जो एक सच्चे इंसान में होना चाहिए। शायद हम जैसे शहर की आडम्बरपूर्ण सभ्यता में आत्ममुग्ध रहने वालों में इसी निश्छल सच्चाई
की नितान्त कमी है।



असली देशभक्त कौन ?--Swarajya karun
यह सूची और भी लम्बी हो सकती है .जितना मुझे ख्याल आया , मैंने लिख दिया .अगर आप चाहें तो इसमें अपनी ओर से भी कुछ बिंदु जोड़कर सूची की लम्बाई बढ़ा सकते हैं
. इससे देशभक्तों की पहचान तय  करना और भी ज्यादा आसान हो जाएगा
 


शिव को करना ही होगा विषपान--विकेश कुमार बडोला
अब सह न सकेंगे
मातृभूमि का अपमान
शिव को अब
करना ही होगा विषपान


जाने किस बहकावे में--शालिनी रस्तौगी
आक्रोश से फटी पड़ती है
कि भीतर के लावे से
सब कुछ ख़ाक कर देने को आतुर
वीर प्रसविनी आज
भक्ष रही निज पूतों को
जाने किस बहकावे में


इश्‍क का स्‍वाद ....--रश्मि शर्मा
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बूंदों ने हाेंठो को छूकर
हवाओं के कान में बोला
इश्‍क का स्‍वाद बड़ा मीठा है
गढ़ की ऊंची दीवारों से झांक
सूरज मुस्‍कराने लगा


श्याम सलोने--Asha Saxena
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 नयनों में आ कर बसी
अनमोल भंगिमा तेरी
श्याम सलोने
तेरी कमली तेरी लाठी
तेरी धैनूं तेरे सखा
मुझको बहुत सुहाय
तू सबसे अलग लगे 
मन से छवि न जाय |


ज़िन्दगी संभलती नहीं है ...--डॉ. मोनिका शर्मा
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ये बातें "पाखी" के संपादक प्रेम भारद्वाज जी और विविध भारती में अपनी आवाज के लिए ख़ास पहचान रखने वाले यूनुस खान जी के संवाद का हिस्सा हैं जो हाल ही में जयपुर
में होने वाले साहित्यिक आयोजनों की श्रृंखला "सरस साहित्य संवाद" में सुनने को मिलीं | मुझे भी इस सार्थक संवाद को सुनने-गुनने का अवसर मिला | प्रेम भारद्वाज
जी ने अपने जीवन और रचनाकर्म से जुड़े कई पहलुओं पर खुलकर बात की |


अंत में पढ़े....
" कोई जित के हार जाता है , कोई हार के जित जाता है।
नही दिखते अकबर के ताबूत कोई , महाराणा प्रताप के घोडे प्रत्येक चौराहे पर नजर आते है ।"



बस आज यहीं तक...
धन्यवाद।














गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

223....दर्द मुझसे मिलकर अब मुस्कराता है


सादर अभिवादन
भाई संजय आज भी नहीे हैं
बीमा विक्रय अधिकारी हैं न वे
शायद इसीलिए...

आज की चुनी हुई रचनाओं के अंश......


सबके मन में ही बसते हैं 
वे समग्र शास्वत आते हैं
मुरझाये मानव,जीवन में 
गीतों का झरना लाते हैं
घने अँधेरे पर जाने कब ,
हौले हौले छा जाते हैं !
किसे ढूँढ़ते चित्र बनाये 
लाखों देव देवताओं में ,
दिव्य और विश्वस्त रूप की, मानव को पहचान नहीं है !

हम खुद कुछ कर नहीं सकते
करना आता जो नहीं
मगर यकीन जानिये 
जोड़ तोड़ में माहिर हैं
इसकी टोपी उसके सिर
करना हमारी पुरानी फितरत है


देह दीवानी 
हुई रूप गर्विता
सत्य न जानी|

यह शहर..... 
आदमी के साथ 
जीता और मरता है

कुछ अलग सा में...गगन शर्मा
हवलदार अभी तक बेहोश है।
इस वार्तालाप को पढ़ कर हंसी तो आती है,
पर यह एक कड़वी सच्चाई है।
हालात में एक्का-दुक्का प्रतिशत बदलाव भले ही आया हो,
पर अभी भी लाखों ऐसे लोग हैं जो इस तरह के भंवर जाल में फंसे हुए हैं।



और ये है शीर्षक रचना का अंश
ग़ज़ल गंगा में...मदन मोहन सक्सेना
दर्द मुझसे मिलकर अब मुस्कराता है
जब दर्द को दबा जानकार पिया मैंने

वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है

आज यहीं तक
आज्ञा दें दिग्विजय को
वक्त रहा तो फिर मिलेंगे


बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

222.....पकड़ ले आइना हाथों में बस उनको दिखाता चल

सादर अभिवादन...

रश्मि दीदी की कविता पढ़ रही थी 
मैं ब्लॉग बुलेटिन में
.......
अंश कुछ इस तरह है.....
शराब में खो गया 
सुख चैन घर का 
बचपन न जाने कहाँ 
किस कोने खो गया 
रोता था घर 
सोचता था मन 
क्या यही होता है घर !
.....
सच ही तो लिखा है दीदी ने...

चलिए चलें...

लगा के बेटियों को, गले से है हँसाया जाता 
न इसके के बदले, कभी भी है रुलाया जाता 
बेटो में देखता बाप, अपने है बचपन की छाया 
मिलता बुढ़ापे में सुकून, पा कर है इनका साया

मन को भेदे, भय से गूथे, विश्वासों का जाल,
अंधियारे में मुझे सताए, मेरा ही कंकाल।

तन सूखा, मन डूबा है, तू देख ले मेरा हाल,
रोक ले शब्दों कोड़ों को, खिंचने लगी है खाल।

दो सौ इक्यावन लगे, फोन बुकिंग आरम्भ।
दिखा करोड़ों का यहाँ, बेमतलब का दम्भ। 


बेमतलब का दम्भ, दर्जनों बुक करवाये।
नोचे बिल्ली खम्भ, फोन आये ना आये।

मुफ्तखोर उस्ताद, दूर रहता है कोसों।
कौड़ी करे न खर्च, कहाँ इक्यावन दो सौ।।


काम क्रोध मद लोभ सब, हैं जी के जंजाल
इनके चंगुल जो फँसा, पड़ा काल के गाल !

परमारथ की राह का, मन्त्र मानिये एक
दुर्व्यसनों का त्याग कर, रखें इरादे नेक ! 


शिक्षा हमें समझ देती है, संवेदना देती है, 
सवाल देती है, सवालों से जूझने की ताकत देती है, 
रास्तों को ढूंढने की ओर अग्रसर करती है। 
शिक्षा हमें तर्कशील बनाती है, विवेकशील बनाती है और 
खुद अपना नजरिया बनाने के लिए हमारे जेहन को तैयार करती है। 


ये रही आज की शीर्षक रचना का अंश

हज़ारों साज़िशें कम हैं सियासत की अदावत की 
हर इक चेहरे के ऊपर से नकाबों को हटाता चल 

कभी सच को हरा पाई हैं क्या शैतान की चालें? 
पकड़ ले आइना हाथों में बस उनको दिखाता चल 

आज्ञा दें यशोदा को
फिर मिलेंगे..






मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

221...इंसान तब तक सलामत है जब तक वो परिवार से जुड़ा है .

जय मां हाटेशवरी...

एक कब्र पर लिखा था…
“किस को क्या इलज़ाम दूं दोस्तो…,
जिन्दगी में सताने वाले भी अपने थे,
और दफनाने वाले
भी अपने थे..
अब देखिये मंगलवारीय प्रस्तुति में...
मेरी पसंद....
पत्थर तब तक सलामत है
जब तक वो पर्वत से जुड़ा है .
पत्ता तब तक सलामत है
जब तक वो पेड़ से जुड़ा है .
इंसान तब तक सलामत है
जब तक वो परिवार से जुड़ा है .
क्योंकि परिवार से अलग होकर आज़ादी तो मिल
जाती है
लेकिन संस्कार चले जाते हैं ..


नहीं अट पायेगी मेरी कविता.......--Amrita Tanmay 
लिखती रहती हूँ प्रेम की कविता
कभी आधा बित्ता कभी एक बित्ता
कभी कोरे पन्नों को
कह देती हूँ कि भर लो
जो तुम्हारे मन में आए -
भावुकता , आत्मीयता , सरलता , सुन्दरता
या भर लो विलासिता भरी व्याकुलता
या फिर कोई भी मधुरता भरी मूर्खता .....


विंड मि‍ल्‍स और मैं.....--रश्मि शर्मा
s320/DSC_0521
 वि‍ंड मि‍ल्‍स के तले
तेज हवाओं से बचाने को
जब भरती थी मुट्ठि‍यों में
अपने ही केश
एक हाथ बि‍खेर देता था सब
जैसे
धूप में खि‍लखि‍लाहट भर
कि‍सी ने लपेटा है मुझको


वो इक हादसा भूलना चाहता हूँ ...--Digamber Naswa
में दीपक हूँ मुझको खुले में ही रखना
में तूफ़ान से जूझना चाहता हूँ
कहो दुश्मनों से चलें चाल अपनी
में हर दाव अब खेलना चाहता हूँ



रविकर गिरगिट एक से, रहे बदलते रंग
खिले गुलाबी ख़ुशी मन, हो सफ़ेद जब दंग |
हो सफ़ेद जब दंग, रचे रचना गड़बड़ सी |
झड़े हरेरी सकल, होय गर बहसा-बहसी |
बदन क्रोध से लाल, हुआ पीला तन डरकर |


देखना/ दिखना/ दिखाना/ कुछ नहीं में से सब कुछ निकाल कर ले आना (जादू)--सुशील कुमार जोशी
s320/Gandhari_explains_to_Dhritrashtra
किसने क्या देखा
क्या बताया
इस सब को
उधाड़ना बंद कर
उधड़े फटे को
रफू करना सीख
कब तक अपनी
आँख से खुद
ही देखता रहेगा



देख समय की चाल " दोहावली--सरिता भाटिया
देख समय की चाल को,खुद को लेना ढाल।
बहक कहीं जाना नहीं, यह दुनिया जंजाल ।।
नस नस में फैला जहर ,देख समय की चाल।
कंकर हो तो ढूंढ ले, काली सारी दाल ।।

अनुमति देंं
कुलदीप



   











   

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

220....विश्वविद्यालय मुझे आकर्षित करते हैं क्योंकि

सुप्रभात
 पिछले कुछ समय से परीक्षा होने के कारण
बहुत व्यस्त था । अब परीक्षा भी हो गई और अच्छी भी गई ।
आज का सुविचार
   
आप अपनी पहली जीत के बाद आराम नही करे क्योंकि यदि आप दूसरे काम मे असफल हो जाते है तो कई लोग यह कहने का इंतजार कर रहे है कि आपकी पहली जीत आपका luck था ।
                                        A.P.J.KALAM
        
और अब प्रस्तुत है आज की आनंद की पांच लिंक

       
     जिन्दगी पर .........वंदना गुप्ता

मैं नहीं चढ़ाती अब किसी भी दरगाह पर चादर 
फिर चाहे उसमे किसी फ़क़ीर का अस्तित्व हो 
या आरक्षण का या अफज़ल की फांसी के विरोध का 
या फिर हो उसमे रोहित वेमुला 
या उस जैसे और सब 
जिनके नाम पर होती हैं अब मेरे देश में क्रांतियाँ 

    आहुती पर ........ सुषमा वर्मा
 
मेरी पंक्तियों को पढ़ कर,
जितना आसान था...
तुम्हारे लिये खामोश होना,
उतना ही मुश्किल था...
मेरे लिये, तुम्हे लिखना....
जितना आसान था..
तुम्हारा मुझे देख कर भी,
नजरअंदाज करना,
उतना ही मुश्किल था,
मेरे लिये तुम्हारे अंदाज़ लिखना... 
जितना आसान था...


   साहित्य प्रेमी संघ पर ...मदन मोहन

मैंने पूछा वकीलों से ,पहने काला कोट  क्यों ,
         मुवक्किल की काली करतूतें छिपाने वास्ते 
उल्टा सीधा पेंच कानूनी ,लगाकर हमेशा ,
          निकाला करते हो उसको  बचाने के रास्ते 
तुमसे अच्छे डॉक्टर है ,श्वेत जिनके कोट है,
          मरीजों की करते सेवा,ठीक करते  रोग है 
ऑपरेशन ,काटापीटी ,तन  की करते है मगर ,
          मर्ज को वो हटाते है ,कितने अच्छे लोग है 


स्पंदन पर .......shikha varshney


विश्वविद्यालय मुझे आकर्षित करते हैं -

क्योंकि- विश्वविद्यालय  WWF  अखाड़ा नहीं, ज्ञान का समुन्दर होता है. जहाँ डुबकी लगाकर एक इंसान, समझदार, सभ्य और लायक नागरिक बनकर निकलता है. 

क्योंकि- शिक्षा आपके व्यक्तित्व को निखारती है, आपको अपने अधिकार और कर्तव्यों का बोध कराती है. वह खुद को सही तरीके से अभिव्यक्त करना सिखाती है. 


         रचनाकार पर ...... कामीनी जी
“और क्या ?एक ही फोन में दौड़ी चली  आई  । बस झोला में कुछ समान और छोटकी को साथ लेकर नथनी साहू कार्पेंटर  के साथ आ गई  । उसको देखकर जैसे कलेजा फट गया इसका  ,रुलाई रुक नहीं रही थी ।कैसा हो गया था । पैर पर पलस्तर ,देह पर मैल चिक्कट, दाढ़ी बड़ी  बड़ी , गंदे बिखरे बिखरे बाल सुख कर बदन कांटा ।जल्दी जल्दी उसका कपड़ा उतरवा कर रात में ही धो कर सूखने डाल दिया ।साबुन से उसके हाथ पाँव धोए ,। कोठरी में चारों तरफ नजर दौड़ाई ।

     अब दिजिए आज्ञा
           और पढिये अब्दुल कलाम
     का यह सुविचार
जब हमारे सिग्नेचर (हस्ताक्षर), ऑटोग्राफ में बदल जाए तो यह सफलता की निशानी है।

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

219...इंसान ने कुत्तों से बहुत कुछ सीखा है,

सादर अभिवादन
एक बार मैं दिग्विजय
फिर से आपके समक्ष
अपनी पसंद लेकर...

दर्प दिखाती खड़ी इमारत 
सिमटे हैं नेह दालान
किरणें आती जाती देखें
सब बंद है रौशनदान
भीतर हवा सुलगती रहती
घुटन भरी साँसें कमसिन.

आहुति में..सुषमा वर्मा
वो राज तुम्हारी आँखों का,
वो जादू तुम्हारी बातो का,
वो खूबसूरती ढलती शामो की,
वो तन्हाई गहराती रातो की,

जिन्दगी की राहें में....मुकेश कुमार सिन्हा
घर के
कुछ दरवाजे और
कुछ से थोड़ी ज्यादा खिड़कियाँ
शायद आपस में कर रहे थे संवाद !!
शायद डेट पर जाने की कवायद या फिर कोई
उच्च स्तरीय बैठक, घर की सुरक्षा पर !!

जुम्बिशें में...मुंकिर
ज्ञानेश्वर का पत्थर है, और दानेश्वर की लाठी है,
समझ की मटकी बचा के प्यारे, भाग्य नहीं तो फूटा है।

बन की छोरी ने लूटा है, बेच के कंठी साधू को,
बाती जली हुई मन इसका, गले में सूखा ठूठा है।


मेरी धरोहर में......मंजू मिश्रा
कुछ तो लोग कहेंगे
कुछ तो लोग कहेंगे ही ….
कहने दो उन्हें
जो कुछ कहते हैं
तुम उनसे…
हजार गुना बेहतर हो



ये रही प्रथम व शीर्षक रचना का अंश



इंसान ने कुत्तों से
बहुत कुछ सीखा है,
सिवाय वफ़ादारी के,
मौक़ा मिलते ही
एक इंसान दूसरे को
कुत्ते की तरह काट खाता है.

अब आज्ञा दें दिग्विजय को
सादर



शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

218 ..... शान्ति/सीपी




Shanti Purohit
7 फ़रवरी को 08:44 अपराह्न बजे ·
जन्म में जन्म
बार बार मर के
लेता मनुज

शान्ति पुरोहित



सभी को यथायोग्य
प्रणामाशीष

ब्लॉग जगत , फेसबुक की दुनिया सभी जगह से मौन हो गई सीपी ..... सब समझते थे लेखन में सोच के संग शब्दों की कारखाना है सीपी ..... फेसबुक पर चल रहे लगभग 50 समूह से ज्यादा ही समूहों की सदस्या थी .... मैं अक्सर उनसे पूछती कैसे इतने समूह में हर विधा पर लिख लेती हो ..... उसे जैसे हडबडी हो ..... मैं नाराज़ भी होती .... ये क्या केवल अपना चिपका भाग लेती हो .... दूसरों के लिखे पे ना like करती हो और ना comment ..... सब फालतू में बैठे हैं , जो केवल तुम्हारा पढ़ें .... मज़ा तब और आता जब उनके पोस्ट किये पे किसी दुसरे का like comment नहीं होता तो बहुत हक से कहती ,मेरे पोस्ट को सबने क्यूँ अनदेखा किया ,एडमिन से शिकायत करती , सबको tag करती .... किसी इवेंट में अगर वो विजेता नहीं होती तो उसे बहुत दुःख होता , कोई जीते ,मैं नहीं न जीती दीदु .... जैसे उसे हडबडी हो ,जल्द  सब पा लेने का .... हडबडी ही तो थी ,साहित्य जगत को लेखन से समृद्ध करने का ..... आज उनके जाने से साहित्य जगत को बहुत बड़ी क्षति पहुंची है

ज्योति - कलश

ब्लॉग जगत में सीपी का योगदान

शान्ति पुरोहित

फेसबुक की दुनिया में




कविता कहानी

जय विजय पत्रिका में



सम्मान की दृष्टि

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हाइकु लिखना जब से शुरू की नशा हो गया उसे हाइकु की दीवानी




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हर पल जेहन में हो .... कैसे विदा लोगी

फिर मिलेंगे .... तब तक के लिए

आखरी सलाम

विभा रानी श्रीवास्तव

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

217...मैं हिन्दू क्यों हूं?

जय मां हाटेशवरी...

भारत आतंकवाद-पीड़ित देश है...
यहां राष्ट्र विरोधी नारे लगना...
अवश्य ही संशय पैदा करता है...
पिछले दिनों कई जयचंद सामने भी आये हैं...
जो  राष्ट्र विरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन कर रहे हैं....
वो भी खुद को देशभक्त कह रहे हैं...
राष्ट्र की बात करने वालों को...
 साम्प्रदायिक  कह कर प्रताड़ित किया जा रहा  है...
ये जहर उगलने वाले कौन हैं?...
वंदे मातरम या भारत माता की जय से....
हिंसा तो नहीं भड़कनी चाहिये....
मुझे आज के माहौल में केवल....
आलोक धन्वा की कविता...
सफेद रात याद आ रही है...
लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
अब इन्हीं शहरों में
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार
कई तरह के सौदाई
इनके भीतर इनके आसपास
इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर
और श्रीनगर तक
हिंसा
और हिंसा की तैयारी
और हिंसा की ताकत
बहस चल नहीं पाती
हत्याएं होती हैं
फिर जो बहस चलती है
उनका भी अंत हत्याओं में होता है
भारत में जन्म लेने का
मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था
अब वह भारत भी नहीं रहा
जिसमें जन्म लिया
क्या है इस पूरे चांद के उजाले में
इस बिखरती हुई आधी रात में
जो मेरी सांस
लाहौर और कराची और सिंध तक उलझती है?
क्या लाहौर बच रहा है?
वह अब किस मुल्क में है?
न भारत में न पाकिस्तान में
न उर्दू में न पंजाबी में
पूछो राष्ट्रनिर्माताओं से
क्या लाहौर फिर बस पाया?
जैसे यह अछूती
आज की शाम की सफेद रात
एक सचाई है
लाहौर भी मेरी सचाई है
 कहां है वह
हरे आसमान वाला शहर बगदाद
ढूंढो उसे
अब वह अरब में कहां है?
पूछो युद्ध सरदारों से
इस सफेद हो रही रात मे
क्या वे बगदाद को फिर से बना सकते हैं?
वे तो खजूर का एक पेड भी नहीं उगा सकते
वे तो रेत में उतना भी पैदल नहीं चल सकते
जितना एक बच्चा ऊंट का चलता है
ढूह और गुबार से
अंतरिक्ष की तरह खेलता हुआ
क्या वे एक ऊंट बना सकते हैं?
एक गुम्बद एक तरबूज एक ऊंची सुराही
एक सोता
जो धीरे-धीरे चश्मा बना
एक गली
जो ऊंची दीवारों के साए में शहर घूमती थी
और गली में
सिर पर फिरोजी रूमाल बांधे एक लड़की
जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी
अब उसे याद करोगे
तो वह याद आएगी
अब तुम्हारी याद ही उसका बगदाद है
तुम्हारी याद ही उसकी गली है
उसकी उम्र है
उसका फिरोजी रूमाल है
जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़े
तो अहिंसा ही थी
उनका सबसे मुश्किल सरोकार अगर उन्हें कुबूल होता
युद्ध सरदारों का न्याय
तो वे भी जीवित रह लेते
बरदाश्त कर लेते
धीरे-धीरे उजड़ते रोज मरते हुए
लाहौर की तरह
बनारस अमुतसर लखनऊ इलाहाबाद
कानपुर और श्रीनगर की तरह

अब चलते हैं आज के आनंद की ओर...
मैं हिन्दू क्यों हूं?
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 मैं वंशानुगत गुणों के प्रभाव पर विश्वास रखता हूं, और मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ है इसलिए मैं हिन्दू हूं. अगर मुझे यह अपने नैतिक बोध या आध्यात्मिक
विकास के विरुद्ध लगे तो मैं इसे छोड़ दूंगा. अध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैं जानता हूं उनमें मैंने इसे सबसे अधिक सहिष्णु पाया है. इसमें सैद्धांतिक कट्टरता
नहीं है, यह बात मुझे बहुत आकर्षित करती है क्योंकि इस कारण इसके अनुयायी को आत्माभिव्यक्ति का अधिक से अधिक अवसर मिलता है  हिन्दू-धर्म वर्जनशील नहीं है, अतः
इसके अनुयायी न सिर्फ दूसरे धर्मों का आदर कर सकते हैं बल्कि वे सभी धर्मों की अच्छी बातों को पसन्द कर सकते हैं और अपना सकते हैं. अहिंसा सभी धर्मों में है
मगर हिन्दू-धर्म में इसकी उच्चतम अभिव्यक्ति और प्रयोग हुआ है. (मैं जैन और बौद्ध धर्मों को हिन्दू-धर्म से अलग नहीं गिनता). हिन्दू-धर्म न सिर्फ सभी मनुष्यों
की एकात्मकता में विश्वास करता है बल्कि सभी जीवधारियों की एकात्मकता में विश्वास करता है. मेरी राय में हिन्दू-धर्म में गाय की पूजा मानवीयता के विकास की दिशा
में उसका एक अनोखा योगदान है. सभी जीवों की एकात्मकता और इसलिए सभी प्रकार के जीवन की पवित्रता में इसके विश्वास का यह व्यावहारिक रूप है. भिन्न योनियों में
जन्म लेने का महान विश्वास, इसी विश्वास का सीधा नतीजा है. अन्त में, वर्णाश्रम धर्म के सिद्धान्त की खोज सत्य की निरन्तर खोज का अत्यन्त सुन्दर परिणाम है.


आतंकवाद के तरीके बदल रहे हैं
 अब तो और भी बहुत सी ताकतें भारत की अखंडता की बैरी हो गयी हैं जिन्होंने अपने आतंकी युवा एजेंट भारत के प्रत्येक कोने में बैठा रखे हैं और विदेशों से प्रचुर
मात्र में काला धन इन स्लीपिंग सेल्स को पोषित करने के लिए आ रहा है ! ये लोग दलितों और गरीब परिवारों के महत्वाकांक्षी बच्चों को पैसों से खरीदकर उनसे मनमाना
काम करवा रहे हैं ! उन्हें देशद्रोह के आरोप में फंसाकर ये लोग फरार हो जाते हैं क्योंकि विदेशों में इनकी सुरक्षा का पुख्ता इंतज़ाम रहता है !
 ज़रुरत है भारत को चेत जाने की ! इनके नापाक इरादों को पहचान लेने की ! इन लोगों पर पैनी दृष्ट रख संदेह होते ही इन्हें गिरफ्तार करने की ! चिंगाली, शोला बन
सब कुछ भस्म कर दे उससे पहले ही संभल जाने की ज़रुरत है !


वसुधैव कुटुम्बकम
माँ वसुंधरा तुम कितनी सहनशील हो
जो हमारे पांवों की चोट सह कर
भरती हो हमारे अंदर सुन्दरता
सिखाती हो हमें बिना रुके सृजन
ओ माँ हम तुम्हारे प्यारे बच्चे तुम्हें क्या दें?
हाथों में हाथ ले कर सम्मलित हंसी दे
या माँ तोड़ दे सारी सरहदे जो तुम्हें
तुमसे ही अलग करती है
या लिख दे तुम्हारे दिल पर
वसुधैव कुटुम्बकम




ग़ज़ल
अय्याशी में कटी जवानी, पाल न पाए बच्चों को,
अंत में गेरुवा बस्तर धारा, पल जाने की आशा में.
महशर के इन हंगामों को, मेरे साथ ही दफ़ना दो,
अमल ने सब कुछ खोया पाया, क्या रक्खा है लाशा में.
ज्ञानी, ध्यानी, आलिम, फ़ाज़िल, श्रोता गण की महफ़िल में,
'मुंकिर' अपनी ग़ज़ल सुनाए, टूटी फूटी भाषा में.


सुरभि
तभी तो कहा जाता है जो आगे की सोच कर चलता है और कठोर धरती को नहीं छोड़ता है वही सरल जीवन जी पाता है |
 सदा भविष्य को ध्यान में रख कर आने वाले कल के लिए प्लानिग करना चाहिए और बचत करने की आदत डालना चाहिए |

लाल आतंक पर चुप्पी क्यों है?
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        ध्यान रहे कि वामपंथी शासन में विरोधी विचारधार के लोगों की हत्या लम्बे समय से की जाती रही है। भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया में वामपंथ का इतिहास हत्या
और हिंसा की राजनीति का है। केरल में ही आरएसएस और भाजपा के 200 से अधिक कार्यकर्ता लाल आतंक का शिकार हो चुके हैं। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में हुई राजनीतिक
हत्याओं को इसमें जोड़ दें तो आम आदमी के रोंगटे खड़े हो जाएंगे। वामपंथी विचारधारा का करीब से अध्ययन किया जाए तो हम पाएंगे कि इसकी बुनियाद में ही हिंसा है।
कम्युनिस्टों के आदर्श ब्लादिमिर इल्या उल्वानोव उपाख्य लेनिन की सार्वजनिक घोषणा हमें याद करनी चाहिए-'जो कोई भी नई शासन व्यवस्था का विरोध करेगा, उसे उसी
स्थान पर गोली मार दी जाएगी।' वामपंथ में विरोधी विचारधारा के लिए किंचित भी जगह नहीं है। यही कारण है कि कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था में विरोधियों के खून से
लाल क्रांति की जाती है। भाजपा के शासनकाल में कोई थोड़ा ऊपर-नीचे बयान भी दे दे तो बुद्धिवादी 'फासीवाद आ गया-फासीवाद आ गया' चिल्लाने लगते हैं। लेकिन, लाल
आतंक पर मासूम बन जाते हैं।
        जेएनयू में देशद्रोही घटना पर उचित कार्रवाई होने पर वामपंथी नेता सीताराम येचुरी को आपातकाल का अनुभव होने लगता है। लेकिन, जब केरल में एक राष्ट्रभक्त
नौजवान की जघन्य हत्या कर दी जाती है तब उनके मुंह से बोल नहीं फूटते हैं। देश में जिन बुद्धिवादियों को अचानक से असहिष्णुता दिखाई देने लगी है, वे सब जान लें
कि यह असहिष्णुता नहीं है बल्कि इस दोगले चरित्र की मुखालिफत है। शोषण और अत्याचार पर बुद्धिवादियों की चुप्पी के खिलाफ अब देश बोलने लगा है। यह देश क्यों बोल
रहा है? यही बात बुद्धिवादियों को अखर रही है। लेकिन, अब देश इस तरह की घटनाओं के खिलाफ उठकर खड़ा हो रहा है। अवार्ड वापसी गैंग भले ही लाल आतंक पर खामोश रह
जाए लेकिन देश बोलेगा।





अब अंत में... पढ़ते हैं...स्वामी विवेकानन्द  से संबंधित प्रेरक प्रसंग...

मन की स्थिति
शिक्षा -  स्वामी विवेकानन्द  ने  उसे  समझाया  कि  यही  स्थिति  हमारे  मन  की  भी  है। जीवन की  दौड़-भाग वाली जिन्दगी  कि  परेशानी  मन  को  परेशान  हताश और  निराश  कर  देती  है। पर  यदि  कोई  शांति  और  आराम  से  उसे  बैठा  देखता और समझता है , तो  परेशानी  अपने आप  खत्म  या कम  हो  जाता  है  और  उसका हल  हो  जाता  है।

धन्यवाद



गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

216......सबको नाच नचाता पैसा!

सादर अभिवादन
भाई संजय आज भी नही हैं
पर आनन्द तो आएगा ही
और काफी से अधिक ही आएगा

ये रही आज की चुनिन्दा रचनाओंं के अंश...


नन्ही अँगुली थामकर
सिखाया आखर-घट खोलना
वही सिखाता शिद्दत से अब
‘मम्मा, तुम ऐसे बोलना|”

मेरा दिया नाम सीपी सुन बच्चों सी किलकती थी
साझा नभ का कोना में हाइकु लेखन समय 
कभी गलती से भी शान्ति जी या Shanti जी 
कह दी तो भड़क जाती थी
उसे हमेशा शिकायत रहती थी 
कि उसे कभी I love you नहीं बोली  मैं

चलिए देशभक्ति शब्द को फांसी दे दें
या कर दें बनवासी
और देशद्रोह शब्द को आदर सम्मान दे दें
शायद आज इन शब्दों की बस इतनी सी है पहचान

स्कूल से आते ही राजू ने अपना बस्ता खोला और लाइब्रेरी से ली हुई पुस्तक निकाल कर 
अपनी छोटी बहन पिंकी को बुलाया ,तभी माँ ने राजू को आवाज़ दी ,
बेटा पहले कपड़े बदल कर ,हाथ मुह धो कर ना खा लो ,फिर कुछ और करना ,
तभी पिंकी ने अपने भाई के हाथ में वह पुस्तक देख ली 

जी चाहता है  
सारे उगते सवालों को  
ढ़ेंकी में कूट कर  
सबकी नज़रें बचा कर  
पास के पोखर में फ़ेंक आएँ  
ताकि सवाल पूर्णतः नष्ट हो जाए 


और ये रही आज की शीर्षक रचना
2009 में प्रकाशित रचना आज भी प्रासंगिक है.... 

नाते रिश्ते सब हैं पीछे
सबसे आगे है ये पैसा
खूब हंसाता, खूब रूलाता
सबको नाच नचाता पैसा!
अपने इससे दूर हो जाते
दूजे इसके पास आ जाते
दूरपास का खेल ये कैसा
सबको नाच नचाता पैसा!

आज बस इतना ही
आज्ञा दें यशोदा को






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