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बुधवार, 6 जुलाई 2016

356....कमाई खत्म हो जाती है अपना घर बनाने में :)


सुप्रभात मैं संजय भास्कर एक बार फिर से हाजिर हूँ
पढ़िए मेरी पसदीदा रचनाएँ :)
ईंट पत्थर जोड़ रहे हैं
धड़कते दिलों को तोड़ रहे हैं
सुन पा रहे नहीं
अपनों की चित्कार
ऐसे अपनों को अपना समझने की


वंदना सिंह 
बहुत कुछ था मेरे पास
जो मैं कह देना चाहती थी
मगर मौन यूं  गहरा गया  जिंदगी में
कि बहुत सोचती हूँ कुछ बोलने से पहले
अब सोचती हूँ तो लगता है


संध्या शर्मा 
अक्षर अक्षर
शब्द मेरे
जानती नहीं कब हो गए
भाव तुम्हारे इस सफ़र का
पता ही न चला

संजय भास्कर 
हादसों के शहर में ,
सबकी खबर रखिए !
कोई रखे न रखे ,
आप जरूर रखिए !
इस दौर में
वफा कि बातें ,
यक़ीनन सिरफिरा है कोई ,


किसी को हद से ज़्यादा प्यार न करना ज़माने में
गुज़र जाती है पूरी उम्र ज़ालिम को भुलाने में

कभी बच्चों के सपने के लिए बरबाद मत करना
कमाई खत्म हो जाती है अपना घर बनाने में


आज्ञा दें भास्कर को
अगले गुरुवार को फिर मिलेंगे तब तक के लिए अलविदा

संजय भास्कर

4 टिप्‍पणियां:

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