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रविवार, 28 अगस्त 2016

408......जिन्दगी कुछ ना कहा तूने

  सुप्रभात 
नमस्कार
आज रविवारीय चर्चा मे 
आपका स्वागत है

. बचने का कोई रास्ता न खुला हो तो मनुष्य डटकर संघर्ष करता है और उसके संकल्प में अटूट दृढ़ता आ जाती है । वह घोर कठिनाई व असह्य कष्ट को भी सहन करता है।
                      

अभी अभी सोया है वह बच्चा
पाँच मिनट पहले तक वह मजदूर था
अभी उतरी है चेहरे पर बाल्य की आभा
कि तभी मालिक हुड़कता है
कि धोया नहीं तीन जूठे ग्लास
आँखें मलते हुआ वह मजदूर पुनः
और फिर सो गया थकान लपेटकर
भूख की किरचें गड़ती हैं ऐंठी हुई नींद में जगह जगह

           

प्यारे भाई आनंद सिंह 
सादर दिवंगतस्ते!
बहुत ही दुखी और उदास मन से तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ। कलम चलते-चलते अचानक रुक सी जाती है, लेकिन तुम जैसे बहादुर पुलिस के सिपाही को पत्र लिखने में ये कलम भी गौरव का अनुभव करते हुए रुक-रूककर एकदम से चल पड़ती है। कुछ रोज पहले तुम अद्भुत शौर्य दिखाते हुए एक गरीब रेहड़ीवाली महिला को लुटने से बचाते हुए उन तीन बदमाशों से जाकर भिड़ गए और बदमाश की गोली खाकर भी तुमने तब तक उनका पीछा किया जब तक कि तुम निढाल होकर धरती पर गिर नहीं पड़े।

     

22 साल पहले जब मैंने भारतीय पुलिस सर्विस में शामिल होने का निर्णय लिया था, जब मुझे लगा की ऐसा करने के लिये बहुत ताकत की जरुरत होती है, ऐसे ताकत जिससे चीजो को किया जा सकता है और सही करने की ताकत।” मेरा यही मानना है की किसी भी देश की पुलिस वहाँ के नागरिको के हक्को की सबसे बड़ी रक्षक है।


ज़िंदगी कुछ नहीं कहा तूने,
मौन रह कर सभी सहा तूने।

रात भर अश्क़ थे रहे बहते,
पाक दामन थमा दिया तूने।

लगी अनजान पर रही अपनी,
दर्द अपना नहीं कहा तूने।



गहरी काली रात,
न चाँद, न सितारे,
न कोई किरण रौशनी की.

चारों ओर पसरा है 
डरावना सन्नाटा,
सिर्फ़ सांय-सांय 
हवा बह रही है.

अब दीजिए आज्ञा
विरम सिंह सुरावा
सादर


6 टिप्‍पणियां:

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